देहरादून के जन्म और विकास की गाथा यहीं से आरंभ होती है। नानक पंथ के सातवें गुरु हरराय महाराज के ज्येष्ठ पुत्र रामराय ने इसी स्थान पर झंडा चढ़ाया था।
इसमें समाहित है एक ऐतिहासिक-सांस्कृतिक परंपरा, जो दून में पनपी और पंजाब, हरियाणा, यूपी, हिमाचल व दिल्ली तक फैल गई।
वर्ष 1675 में चैत्र कृष्ण पंचमी के दिन गुरु रामराय महाराज के कदम दून की धरती पर पड़े। उनकी प्रतिष्ठा में एक बड़ा उत्सव मनाया गया। यही से झंडा मेला की शुरुआत हुई, जो कालांतर में दूनघाटी का वार्षिक समारोह बन गया।
1675 में पड़ी चूल्हे की नींव
देहरादून में इस साझा चूल्हे की नींव दरबार साहिब श्री गुरु रामराय के आंगन में वर्ष 1675 में चैत्र पंचमी के दिन पड़ी। यही देहरादून में ऐतिहासिक झंडा मेला की शुरुआत हुई।
उस समय देहरादून एक छोटा गांव हुआ करता था। मेले में पहुंचने वाले लोगों के लिए भोजन का इंतजाम करना आसान नहीं था। इसी को देखते हुए श्री गुरु रामराय महाराज ने ऐसी व्यवस्था बनाई कि दरबार की चौखट में कदम रखने वाला कोई भी व्यक्ति भूखा न लौटे।
उस समय देहरादून एक छोटा गांव हुआ करता था। मेले में पहुंचने वाले लोगों के लिए भोजन का इंतजाम करना आसान नहीं था। इसी को देखते हुए श्री गुरु रामराय महाराज ने ऐसी व्यवस्था बनाई कि दरबार की चौखट में कदम रखने वाला कोई भी व्यक्ति भूखा न लौटे।
चूल्हे की आंच ठंडी नहीं पड़ी
इसके बाद बीते 337 साल से दरबार साहिब में चूल्हे की आंच ठंडी नहीं पड़ी। इस चूल्हे ने अपनी चौखट पर आए किसी भी व्यक्ति से कभी यह सवाल नहीं किया कि उसका मजहब क्या है। यह भेद करना नहीं, भेद मिटाना जानता है, इसीलिए इंसानियत का 'सांझा चूल्हा' बन गया।
जब इस मेले की शुरुआत हुई उस दौर में पंजाब व हरियाणा से ही संगतें दरबार साहिब पहुंचती थीं, लेकिन धीरे-धीरे झंडे जी की ख्याति देश-दुनिया में फैलने लगी।
जब इस मेले की शुरुआत हुई उस दौर में पंजाब व हरियाणा से ही संगतें दरबार साहिब पहुंचती थीं, लेकिन धीरे-धीरे झंडे जी की ख्याति देश-दुनिया में फैलने लगी।